[ఒక వాట్సాప్ హిందీ
సందేశానికి తెలుగు అనువాదం]
చాలాకాలం తరువాత ఒక కథ దొరికింది। నేను
దీన్ని చిన్నతనంలో చదివాను। మీరూ దీన్ని చదివి అర్థం చేసుకోండి।
ఒక ఊరిలో నలుగురు మిత్రులుండేవారు, నలుగురూ చాలా స్నేహంగా ఉంటూ నిత్యం కలిసి తిరుగుతూ, కలిసి ఉంటూ ఆలోచనలు చేసుకునేవారు।
ఒక బ్రాహ్మణుడు
ఒక క్షత్రియుడు
(రాజుగారు)
ఒక వ్యాపారి (శెట్టి)
ఒక మంగలి।
కానీ వారిలో వర్ణభేదం లేకుండా చాలా
ఘనిష్ఠమైన అనుబంధం, ఐకమత్యం ఉండేది। ఈ
ఐకమత్యం కారణంగానే వారు ఊరిలోని రైతుల పొలాలలో చెరుకు, శెనగగింజలు తెంపుకుని తింటుండేవారు।
అట్లగే ఒక రోజు ఈ నలుగురు ఒక రైతు పొలం
నుండి పల్లీలు తుంపుకుని ఆ పొలంలోనే కూర్చుని రుచిగా తింటూ ఆనందించసాగారు।
పొలం యజమాని రైతు వచ్చాడు। నలుగురిని
హాయిగా ఆనందించటం చూసి అతడికి ఒళ్ళు మండిపోయింది। వాళ్ళను కర్ర ఎత్తి బాగా బాదాలి
అనిపించింది। కానీ వారేమో నలుగురు, తాను ఒక్కడు। తానే
తన్నులు తింటాడు। ఇప్పుడేం చేయాలి? అప్పుడు ఒక యుక్తిని
ఆలోచించాడు।
నలుగురి వద్దకూ వెళ్ళి, బ్రాహ్మణుడి పాదాలు తాకి, రాజుగారికి జయం చెప్పి, శెట్టిని కుశలమడిగి
మంగలితో అన్నాడు-
“చూడు తమ్ముడూ, బ్రాహ్మణుడు అంటే దేవత। భూమిపై నడయాడే దైవం। రాజుగారు
అందరికి యజమాని, అన్నదాత। శెట్టి అందరికి అప్పు
ఇచ్చి ఆదుకునేవాడు। వీరు మువ్వురు శ్రేష్ఠులు। వీరు పల్లీలు తుంపుకుని తింటే
తిన్నారు। కానీ నీకేం వచ్చింది? మంగలోడివి, నీకెందుకు తుంపాలి అనిపించింది?”
అని అంటూనే లాఠీ తీసి
వాడికి నాలుగు దెబ్బలు జాడించాడు।
మిగితా ముగ్గురు అతడిని విరోధించలేదు।
ఎందుకంటే వారిని పొగిడాడు కనుక। ఇక రైతు శెట్టి వద్దకు పోయాడు--
“మీరు పెద్ద గొప్ప
వ్యాపారస్తులైతే కావచ్చు, అది మీ ఇంట్లో। గొప్ప
బ్రాహ్మడో, రాజులో కాదు కదా। మీరెందుకు
చెయ్యేశారు పొలం మీద?” అని అతడిని ఓ నాలుగు
అంటించాడు।
బ్రాహ్మడు, రాజుగారు ఏమీ మాట్లాడలేదు। ఇక రైతు రాజుగారితో అన్నాడు--
“రాజుగారూ, మీరు అన్నదాతే- ఒప్పుకుంటాను। అయినా ఒకరి అన్నం లాక్కోవటం
తప్పు కాదా? బ్రాహ్మడంటే వేరు। అతడికి
ఇచ్చింది దానం కింద పోయి పుణ్యం ఇస్తుంది। మరి మీరెందుకు హస్తలాఘవం చూపారు!” అని రాజుగారికి కూడా కర్ర రుచి చూపాడు।
బ్రాహ్మడు ఏమీ అనలేదు। మంగలివాడు, శెట్టి ఇంకా తమ గాయాలు రుద్దుకుంటున్నారు । ఈ ముగ్గురూ
దెబ్బలు తిన్నాక, రైతు బ్రాహ్మడి వంక తిరిగి, అన్నాడు--
“మీరు భూమి మీద దైవం అని
ఒప్పుకుందాం। కానీ ఈ ముగ్గురి కి ముఠానాయకుడు మీరే కదా। ఎట్లా వదిలి పెట్టను? అది అన్యాయం అవుతుంది। రెండు మీకు ప్రసాదం పెట్టాల్సిందే।”
దెబ్బ తిన్న ముగ్గురు
ఒకేసారి అన్నారు- “ఔనౌను। బ్రాహ్మడికి
కూడా శిక్ష పడాలి।”
ఇంకేఁ? బాపనయ్యకు కూడా కర్ర రుచి చూపించాడు। రైతు ఈ విధంగా నలుగురిని
వేరు చేసి చావబాదాడు। ఎవ్వరూ అవతలివారికి అనుకూలంగా ఏమీ మాట్లాడలేదు। తరువాత
ఎన్నడూ వారు ఒక్క చోట కనిపించలేదు।
మిత్రులారా, క్రితం కొన్ని శతాబ్దాలుగా హిందువుల పట్ల ఇదే జరుగుతున్నది।
(పొలంలోది కోసి మేయటం తప్పు కాదా అనకండి. ఇక్కడ సంఘటన ముఖ్యం కాదు. దానికన్నా రైతు
చూపిన వేర్పాటు యుక్తి ముఖ్యం.)
కథ నచ్చితే అగ్రేషణం చేయండి। కేవలం కథలా
అనిపిస్తే రాబోయే తరం కోసం లాఠీ సిద్ధంగా ఉంది। జాగ్రత్త!
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మూలలేఖ
बहुत दिनों बाद एक कहानी मिली है, हमने इसे बचपन में पढ़ा था। इस कहानी को पढ़ कर सोचिये और समझिये।।।
ध्यान से पढ़ें,
किसी गाँव में चार मित्र रहते थे।
चारों में इतनी घनी मित्रता थी कि हर समय साथ रहते उठते बैठते, योजनाएँ बनाते।
एक ब्राह्मण
एक ठाकुर
एक बनिया और
एक नाई था
पर कभी भी चारों में जाति का भाव नहीं था गज़ब की एकता थी।
इसी एकता के चलते वे गाँव के किसानों के खेत से गन्ने चने आदि चीजे उखाड़ कर खाते थे।
एक दिन इन चारों ने किसी किसान के खेत से चने के झाड़ उखाड़े और खेत में ही बैठकर हरी हरी फलियों का स्वाद लेने लगे।
खेत का मालिक किसान आया। चारों की दावत देखी उसे बहुत क्रोध आया। उसका मन किया कि लट्ठ उठाकर चारों को पीटे। पर चार के आगे एक? वो स्वयं पिट जाता। सो उसने एक युक्ति सोची।
चारों के पास गया, ब्राह्मण के पाँव छुए, ठाकुर साहब की जयकार की। बनिया महाजन से राम जुहार और फिर नाई से बोला--
देख भाई, ब्राह्मण देवता धरती के देव हैं, ठाकुर साहब तो सबके मालिक हैं अन्नदाता हैं, महाजन सबको उधारी दिया करते हैं, ये तीनों तो श्रेष्ठ हैं।
तो भाई इन तीनों ने चने उखाड़े सो उखाड़े पर तू? तू तो ठहरा नाई तूने चने क्यों उखाड़े? इतना कहकर उसने नाई के दो तीन लट्ठ रसीद किये।
बाकी तीनों ने कोई विरोध नहीं किया क्योंकि उनकी तो प्रशंसा हो चुकी थी।
अब किसान बनिए के पास आया और बोला-
तू साहूकार होगा तो अपने घर का। पण्डित जी और ठाकुर साहब तो नहीं है ना! तूने चने क्यों उखाड़े? बनिये के भी दो तीन तगड़े तगड़े लट्ठ जमाए।
पण्डित और ठाकुर ने कुछ नहीं कहा।
अब किसान ने ठाकुर से कहा--
ठाकुर साहब, माना आप अन्नदाता हो पर किसी का अन्न छीनना तो ग़लत बात है। अरे पण्डित महाराज की बात दीगर है। उनके हिस्से जो भी चला जाये दान पुन्य हो जाता है। पर आपने तो बटमारी की! ठाकुर साहब को भी लट्ठ का प्रसाद दिया,
पण्डित जी बोले नहीं, नाई और बनिया अभी तक अपनी चोट सहला रहे थे।
जब ये तीनों पिट चुके।
तब किसान पण्डितजी के पास गया और बोला--
माना आप भूदेव हैं। पर इन तीनों के गुरु घण्टाल आप ही हैं। आपको छोड़ दूँ, ये तो अन्याय होगा। तो दो लट्ठ आपके भी पड़ने चाहिए। मार खा चुके बाकी तीनों बोले
हाँ हाँ, पण्डित जी को भी दण्ड मिलना चाहिए। अब क्या पण्डित जी भी पीटे गए।
किसान ने इस तरह चारों को अलग अलग करके पीटा। किसी ने किसी के पक्ष में कुछ नहीं कहा, उसके बाद से चारों कभी भी एक साथ नहीं देखे गये।
मित्रों पिछली दो तीन सदियों से हिंदुओं के साथ यही होता आया है। कहानी सच्ची लगी हो तो समझने का प्रयास करो और अगर कहानी केवल कहानी लगी हो तो आने वाले समय के लट्ठ तैयार हैं। 🌹
ध्यान से पढ़ें,
किसी गाँव में चार मित्र रहते थे।
चारों में इतनी घनी मित्रता थी कि हर समय साथ रहते उठते बैठते, योजनाएँ बनाते।
एक ब्राह्मण
एक ठाकुर
एक बनिया और
एक नाई था
पर कभी भी चारों में जाति का भाव नहीं था गज़ब की एकता थी।
इसी एकता के चलते वे गाँव के किसानों के खेत से गन्ने चने आदि चीजे उखाड़ कर खाते थे।
एक दिन इन चारों ने किसी किसान के खेत से चने के झाड़ उखाड़े और खेत में ही बैठकर हरी हरी फलियों का स्वाद लेने लगे।
खेत का मालिक किसान आया। चारों की दावत देखी उसे बहुत क्रोध आया। उसका मन किया कि लट्ठ उठाकर चारों को पीटे। पर चार के आगे एक? वो स्वयं पिट जाता। सो उसने एक युक्ति सोची।
चारों के पास गया, ब्राह्मण के पाँव छुए, ठाकुर साहब की जयकार की। बनिया महाजन से राम जुहार और फिर नाई से बोला--
देख भाई, ब्राह्मण देवता धरती के देव हैं, ठाकुर साहब तो सबके मालिक हैं अन्नदाता हैं, महाजन सबको उधारी दिया करते हैं, ये तीनों तो श्रेष्ठ हैं।
तो भाई इन तीनों ने चने उखाड़े सो उखाड़े पर तू? तू तो ठहरा नाई तूने चने क्यों उखाड़े? इतना कहकर उसने नाई के दो तीन लट्ठ रसीद किये।
बाकी तीनों ने कोई विरोध नहीं किया क्योंकि उनकी तो प्रशंसा हो चुकी थी।
अब किसान बनिए के पास आया और बोला-
तू साहूकार होगा तो अपने घर का। पण्डित जी और ठाकुर साहब तो नहीं है ना! तूने चने क्यों उखाड़े? बनिये के भी दो तीन तगड़े तगड़े लट्ठ जमाए।
पण्डित और ठाकुर ने कुछ नहीं कहा।
अब किसान ने ठाकुर से कहा--
ठाकुर साहब, माना आप अन्नदाता हो पर किसी का अन्न छीनना तो ग़लत बात है। अरे पण्डित महाराज की बात दीगर है। उनके हिस्से जो भी चला जाये दान पुन्य हो जाता है। पर आपने तो बटमारी की! ठाकुर साहब को भी लट्ठ का प्रसाद दिया,
पण्डित जी बोले नहीं, नाई और बनिया अभी तक अपनी चोट सहला रहे थे।
जब ये तीनों पिट चुके।
तब किसान पण्डितजी के पास गया और बोला--
माना आप भूदेव हैं। पर इन तीनों के गुरु घण्टाल आप ही हैं। आपको छोड़ दूँ, ये तो अन्याय होगा। तो दो लट्ठ आपके भी पड़ने चाहिए। मार खा चुके बाकी तीनों बोले
हाँ हाँ, पण्डित जी को भी दण्ड मिलना चाहिए। अब क्या पण्डित जी भी पीटे गए।
किसान ने इस तरह चारों को अलग अलग करके पीटा। किसी ने किसी के पक्ष में कुछ नहीं कहा, उसके बाद से चारों कभी भी एक साथ नहीं देखे गये।
मित्रों पिछली दो तीन सदियों से हिंदुओं के साथ यही होता आया है। कहानी सच्ची लगी हो तो समझने का प्रयास करो और अगर कहानी केवल कहानी लगी हो तो आने वाले समय के लट्ठ तैयार हैं। 🌹